Monday, January 31, 2011

न नक्सली और न माओवादी, ये हैं सिर्फ हत्यावादी


मैं यहां यह कहना चाहता हूं कि नक्सल आंदोलन की शुरूआत में जो इसका स्वरूप था उसमें आज काफी बदलाव आ चुका है। इसकी शुरूआत तो हुई थी सामा जिक और आर्थिक कारणों से, क्योंकि उस समय जो पीढ़ी थी उसे लगा था कि हमें आजाद हुए इतने वर्ष हो गए परंतु अभी भी आर्थिक शोषण और सामाजिक असमानता ज्यों की त्यों हैं। सत्ता और सामथ्र्थ कुछ ताकतवर लोगों के हाथों में है, वहीं सब कुछ संचालित कर रहें हैं। जनता शोषित और पीडि़त है, ऐसे माहौल में चारू मजूमदार ने एक चिंगारी सुलगायी थी।

देखिए, ये भी कहना गलत होगा कि हिंसा का तत्व इधर कुछ वर्षो में इस आंदोलन में शानिल हुआ है। हिंसा तो शुरू से उनके आंदोलन का प्रमुख तत्व रही है। इसका केद्रिंय मंत्र ही था- वर्ग शत्रु का अंत करना। जमीनदार, सूदखओर, भ्रष्ट पुलिस अधिकारी आदि इनके निशाने पर रहें हैं। इनकी हत्या ही उनका एकमात्र लक्ष्य रहा है। नक्सली सशस्त्र काँति में विश्वास करतें हैं। मगर आज इस आंदोलन में विचारधारा जैसी चीज नही रही, उदेद्श्यहीन हिंसा प्रभावी हो गई है। विकास कार्य में बाधा डालना, सडक़े-पुल तोडऩा, राष्ट्र विरोधी से सांठ-गांठ करना आज इनके अभियान में शामिल हो गए हैं।

मैं तो यही कहना चाहता हूं कि आज नक्सली आंदोलन पूरी तरह भटक गया है। न कोई आदर्श है, न कोई कानून। ये रेलवे ट्रेक उड़ाते है माओ के नाम पर, थाने उड़ातें हैं लेनिन के नाम पर और लेवी(रंगदजारी) वसूलतें हैं माक्र्स के नाम पर



प्रतीक शेखर

Saturday, January 29, 2011

है अगर दम तुझमें, तो दिखा जलवा जरा..............

हम कहते हैं भारत हमारा देश है। इसे और सजा कर कहा जाए तो हम कह सकते है कि भारत दुनिया का सबसे अच्छा और सबसे प्यारा देश है। चलिए, इसे और प्रभावित तरीके से कहने की कोशिश करते हैं भारत एक कृषि प्रधान और सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश है। कहीं मैं गलत तो नही कह रहा, शायद हां। क्योंकि भारत की वर्तमान स्थिति कुछ और ही ब्यान करती है, आज हमारा देश भ्रष्टाचार की चपेट में आता जा रहा है, पर उंगला उठाने आगे कोई भी नही आ रहा। सारी बातें सुप्रीमकोर्ट तक आकर खत्म हो जा रही है।


है अगर दम तुझमें, तो दिखा जलवा जरा
छोड़ नफरत की तू आंधी, प्यार का तुफां

भ्रष्ट लोगों को हटा दे, देश के वीर जवां
तेरे सिर पर ही है सजती, देश की किस्मत यहां

देश में करोड़ों रूपए के घोटाले तो ऐसे हो रहें हैं जैसे हमारे देश में मानो अचानक से पैसे के पेड़ उग आऐं हो। देश की जनता अपनी पेट काट-काट कर टैक्स जमा करती है और उस पैसे को कोई यूहीं लूट कर ले जाए हम कैसे देख सकते हैं। परंतु सवाल यह है कि इनके विरूद्ध कौन खड़ा हो, वो जिन्हें देश में हो रही गतिविधियों का कुछ पता नही या फिर वो जिन्हें दिनभर काम करना है और ढ़ेर सारा पैसा कमा कर रात को घर पर आकर सो जाना है। जी नही, ऐसे लोगों से तो उम्मिद भी करना बेवकूफी होगा। अगर ऐसे भ्रष्ट लोगों को वाकई में इनके अंजाम तक पहुंचाना है तो सबसे पहले हमें ही आगे आना पड़ेगा।

प्रतीक शेखर 

 

Friday, January 28, 2011

इस जिंदगी से क्या गिला, जो मिला वो ........

शायद किसी ने सच ही कहा है, जो होता है अच्छे के लिए ही होता है। इसलिए तो मैं कहता हूं कि इस जिंदगी से क्या गिला, जो मिला वो अच्छा था पर अधूरा मिला। अक्सर जिंदगी में उतार-चढ़ाव आते जाते रहते हैं, कभी खुशी तो कभी गम, कभी प्यार तो कभी नफरत जैसे स्तिथि इसमें हमेशा पैदा होती रहती है। मैं अपनी जिंदगी से थाड़ा दूर खड़ा हूं, पर हां, मैं अपनी जिंदगी से बहुत प्यार करता हूं। इंसान की परिभाषा भला कोई मुझे दे सकता है क्या? या फिर छोडि़ए मुझे सिर्फ कोई इंसानियत की ही परिभाषा बता दे।

Tuesday, January 25, 2011

कौन जाने की कल

तुमसे मिलने को चेहरे बनाना पड़े
क्या दिखायें जो दिल भी दिखाना पड़े,

गम के घर तक न जाने की कोशिश करो
जाने किस मोड़ पर मुसकुराना पड़े,

आग ऐसी लगाने से क्या फायदा
जिसके शोलों को खुद ही बुझाना पड़े,

कल का वादा न लो, कौन जाने की कल
किस को चाहंू, किसे भूल जाना पड़े,

खो न देना कहीं ठोकरों का हिसाब
जाने किस-किस को रास्ता बताना पड़े,

ऐसे बाजार में आये ही क्यों वसीम
अपनी बोली जहां खुद लगाना पड़े।
                    

                                        वसीम बरेलवी

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