Wednesday, September 10, 2014

'उत्तराखंड से जम्मू-कश्मीर तक'

बीते वर्ष उत्तराखंड और इस वर्ष जम्मू-कश्मीर पर जो प्राकृतिक आपदा आई, ये किसी भयावह हादसा से कम नहीं। आंखो के सामने से अपने लोगों की मौत को देखना, जिंदगी में इससे बड़ा दुखद मंजर कुछ और नहीं हो सकता। अभी उत्तराखंड का वो दर्दनाक दृश्य आंखों के सामने से निकला नहीं था कि जम्मू-कश्मीर का मंजर सामने आ गया।

उत्तराखण्ड में आई प्राकृतिक आपदा एक ऐसी राष्ट्रीय आपदा थी जिसकी चोट से उबरने में उत्तराखंड अब तक असमर्थ रहा है। उस भयावह मंजर को देखने के बाद आज भी देशवासियों को वहां जाने में डर लगाता है। उत्तराखंड में कितनी जाने गईं इसका अब तक कोई हिसाब नहीं लगाया गया, क्योंकि आज भी उत्तराखंड की पर्वतीय इलाकों से शव मिल रहे हैं।

जम्मू-कश्मीर की हालात भी कुछ ऐसी ही बयान करती नजर आ रही है। पूरा इलाका पानी में डूब चूका है। लोग अपनी जिंदगी बचाने के लिए मौत से जंग लड़ने को विवश हैं। पिछली बार की तरह इस बार भी भारतीय सेना के जवान अपनी जान को जोखिम में डालकर अपने देशवासियों की सुरक्षा में वहां तैनात हैं।

पिछले साल उत्तराखंड में आई आपदा के बाद बड़े पैमाने पर हुई जन हानि का एक अहम कारण आपदा प्रबंधन विभाग तथा मौसम विभाग के बीच तालमेल की कमी न होना बताया गया था और इस बार फिर मौसम विभाग फैल होती नजर आ रही है क्योंकि मौसम विभाग ने कल (9 सिंतबर) से अगले तीन दिनों तक राज्य में भारी बारिश की संभावना से इनकार किया था और आज (10 सिंतबर) फिर से बारिश राज्य में शुरू हो गई। सेना ने अब तक 80,000 लोगों को सुरक्षित बाहर निकाला है।

जम्मू-कश्मीर में चारों तरफ बाढ़ से बरबादी का मंजर दिख रहा है। अब तक 150 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है। कई जगहों पर लोग अपने−अपने घरों में फंसे हुए हैं। राज्य के 390 गांव पानी में डूबे हुए हैं, जिनमें 50 बुरी तरह प्रभावित हैं। हांलांकि बाढ़ में फंसे हुए लोगों को जवानों की मदद से बाहर निकाला जा रहा है और उन्हें किसी सुरक्षित स्थानों पर भेजा जा रहा है।

लगातार 6 दिन हुई बारिश के बाद जम्मू श्रीनगर हाइवे 200 मीटर कट चुका है यानी जम्मू−कश्मीर बाकी देश से फिलहाल सिर्फ हवाई रास्ते से जुड़ा हुआ है। आपदा तो एक क्षणिक घटना है जो आई और तबाही का एक भयानक मंजर छोड़कर चली गई किन्तु उसके बाद शुरू हुई त्रासदी की चीत्कारें जो आज भी पूरे भारत में सुनी जा सकती हैं।    

Saturday, January 21, 2012

शहर तुम्हारा

शहर तुम्हारा मुझे अब अंजाना लगता है,
ख्यालों में तुम्हारा आना  हर पल सताता है,
हर वक्त तुम्हारे होने का एहसास मुझे दिलाती है ये हवा,
अब तो सारा महफिल मुझे पता नही क्यों विराना लगता है।

कोई तो दर्द है मेरे सीने में छुपा हुआ,
मंजिलें है समाने पर चलना दुर्लभ हुआ,
साथ होता अगर तुम्हारा तो क्या कहना था,
दिलों का दीदार करना अब बड़ा मुश्किल हुआ.....

प्रतीक शेखर

Wednesday, September 28, 2011

दौलत से इज्जत बड़ी, और इज्जत से आन, काहे उड़ा रहे हो मनमोहन जी तुम भारत की शान

प्रतीक शेखर, भोपल

शायद किसी ने सही ही कहा है कि सोए की बस नींद है, जागे का संसार,  अब क्या तुझको चाहिए, कर ले सोच विचार। ये तो हम सभी जानते हैं कि आप कुछ भी नही करते बस आप से करवाया जाता है, आपको कठपुतली की तरह नचाया जाता है क्योंकि इस कठपुतली की ढोर तो किसी और के हाथों में है। मगर ये बातें कुछ हजम नही होती प्रधानमंत्री जी, मुझे ऐसा नही लगता कि आप बड़े भोले और न समझ हो।


मनमोहन जी आपको शायद ये पता होना चाहिए कि कुर्सी की लालच ने आज आपको उस जन-अदालत के बीच ला खड़ा कर दिया है जहां से अब आपको बचाने कोई भी नही आ सकता। और इसके जिम्मेदार आप खुद ही है। इससे बड़ी शर्म की बात और क्या हो सकती है कि देश का प्रधानमंत्री ही अपने सामने 2जी स्पेक्ट्रम जैसे न जाने और कितने तरह के घोटाले करवाता है और फिर दूसरे के माथे पर वह कलंक गढ़ देता है।


वैसे मैं यह नही कहता कि ए.राजा बहुत ही ईमानदार इंशान है पर आखिरकार आपने तो उस भीे फसा ही दिया ना। वो तो बेचारा बार-बार आपका और गृहमंत्री साहेब का नाम ले ही रहा था पर उस वक्त आपलोगों ने उसे ऐसा फसाया था कि उस वक्त उनकी हालत धोबी के कुत्ते जैसी हो गई थी।

आपने तो जमकर इस कुर्सी का गलत फायदा उठाया है, अब क्या आप बता सकतें हैं कि अमेरिका से वापस आने के बाद आपकी अगली रणनीति माफ कीजिएगा आपकी नही पार्टी की अगली रणनीति क्या होगी, क्या कुछ सूचना आपके पास आयी है।

जय हिन्द जय भारत


Friday, September 23, 2011

आतंकियों से नहीं, आप से डर लगता है चिदंबरम साहब

प्रतीक शेखर, भोपाल

नक्सल समस्या से ग्रस्त 60 जिलों के जिलाधिकारियों की कार्यशाला में केंद्रीय गृहमंत्री ने नक्सलवाद को आतंकवाद से ज्यादा खतरनाक बताया और राज्यों को नसीहत दी कि इस समस्या से वह खुद ही निपटें। चिदंबरम साहब ऐसे बयान से आप हमें क्या समझाना चाहतें हैं और आप हमें क्या बताएंगे हम कल भी इन आतंकियों और नक्सलियों से निपटे थे और आज भी निपटने की ताकत रखते है।
अरे जब आप जनता के घरों को नहीं बचा सकते तो आप गृहमंत्री के पद से इस्तीफा क्यों नही दे देते, उसी में हम सब की भलाई होगी। आप बयानबाजी करते रह जातें है और रियाज भटकल, अब्दुल सुभान कुरैशी, आमिर रजा और मोहसिन चौधरी जैसे खतरनाक आंतकी पाकिस्तान में जाकर पनाह ले लेते हैं। और जो आतंकवाद को पकड़ लिया जाता है उसे आप भारतीय कारावास में पनाह दे देते है जैसे अफजल गुरु  और अजमल कसाब।
आप नक्सलवाद की बात कर रहें हैं, अरे जो फैसला आज सरकार के तरफ से आप ले रहे हैं वही अगर आज से कुछ वर्ष पहले ले लिए होते तो शायद आज नक्सलवाद हमारे साथ होतें और आतंकियों के खिलाफ लड़तें। जरा आप बताएंगे कि इस साल जिन आतंकियों को पकड़ा गया है जैसे- आमिर अब्बास, सैयद सलाउद्दीन सालार, दानिश रियाज, इकरार शेख और मो.नियाज उनके साथ आप किस प्रकार बर्ताव करने वाले हैं। क्योंकि आजकल तो आप न्यायलय के जस्टिस को भी कहने लगे है कि लक्ष्मण रेखा से पार न जाएं।


 

Tuesday, August 9, 2011

एक बात

गमों की आंधी जब चलती है
तो दिल धडक़ उठता है,
यादों की बदरी जब छाती है
तो मन मचल उठता है,
मुझे चाहत नही की हमेशा प्यार ही मिले
बहती गंगा में सोने का बाण ही मिले,
शायद रोता हूं कभी किसी की याद आने पर
कौन जाने मेरा साथ कभी किसी को न मिले,


है कहीं खामोशी पर दिखती नही
रौशनी भी है कहीं पर चमकती नही,
मैं खुद में अंजान हूं, खुद से हैरान हूं
अपनी जिंदगी से मैं थोड़ा परेशान हूं,
कहीं छुट सा गया है समय मेरा
और रूठ सा गया है तकदीर,
कैसे दिखाऊ मैं किसी को अपनी जिंदगी की तस्वीर
और उस पर खिंची हुई नफरत की लकीर

प्रतीक शेखर


 

Monday, June 20, 2011

विश्व संगीत दिवस पर विशेष

वो जिसने हिन्दी फिल्म संगीत की तस्वीर बदल दी- ए.आर.रहमान

बात 1991 की है। जब तमिल फिल्म इंडस्ट्री के बेहतरीन निर्देशक मणिरत्नम और बेहतरीन संगीतकार इल्लैया राजा की वर्षो पुरानी जोड़ी टूट चुकी थी। मणिरत्नम एक नए और फ्रेश संगीतकार की खोज में थे। हर साल की तरह उस साल भी मणिरत्नम का एक जाने माने अवार्ड फैशन में जाना हुआ। समारोह शुरू होने के पहले वहां पहले से ही कुछ संगीत का कार्यक्रम चल रहा था। मणिरत्नम उस संगीत के धुनों से काफी प्रभावित हुए । उन्होंने उस संगीतकार के कुछ और गानों की फरमाईंश की। धुनों का असर बढ़ता गया। समारोह के बाद मणिरत्नम उस संगीतकार के म्युजिक रिकार्डिंग स्टुडियो भी गए। उस गुमनाम संगीतकार ने अपना एक पुराना गीत मणिरत्नम को सुनाया, जिसे उसने बहुत पहले कावेरी विवाद के सिलसिले में तैयार किया था। मणिरत्नम ने तनिक भी देर न करते हुए अपनी नई फिल्म के लिए इस गीत की मांग कर दी और साथ ही साथ इस नए संगीतकर को साईन भी कर लिया। वह मकबूल फिल्म थी बालचंदर्श कवितालय की रोजा, और वह गाना था तमिजा-तमिजा जो हिंदी में अनुवादित हुआ भारत हमको जान से प्यारा है, और वह अनजाना सा संगीतकार का नाम था अब्दुल रहमान जिसे आज हम ए.आर.रहमान के नाम से जानते हैं। 
संगीत की लोकप्रियता कभी खत्म नहीं हो सकती
 यूं तो सुमधुर संगीत का दौर कभी खत्म नहीं होता और न ही शायरी या कविता कभी फिल्मों से दूर हो सकती है, लेकिन अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि हिन्दी फिल्म संगीत और फिल्मी, शायरी का सुनहरा दौर खत्म होता नजर आ रहा है। बेशक संगीत के सुर दौर के हिसाब से बदलते हैं, लेकिन शायदी के शब्द अपने मायने बदलने लगे यह अफसोस की बात है। संगीत आज भी वक्त के हिसाब से सुमधुर है, नई-नई तकनीकों में डूब, साज, नए-नए अंदाज में पतली आवाजें और नए-नए संगीतकारों की लज्वाब प्रतिभाएं संगीत की दुनिया को समृद्ध बनाती है। हर दौर का संगीत उसके युवाओं और उसके श्रोताओं की मांग से प्रभावित होता है, इसमें कोई दोराय नहीं। उस ‘गोल्डन’ दौर में भी जब फिल्म संगीत उस समय के युवाओं को ध्यान में रखकर बनाया जाता था, तो आज का संगीत भी वही मांग करता है। डिस्को, जैज, रैप, बे्रक न जाने संगीत के कितने दौर और न जाने कितनी शैलियां आई और चली गईं। ये शैलियां बेशक युवाओं को अपने साथ बहा ले जाती है। डिस्को के दौर में संगीत जुदा था, जो उस दौर के युवाओं को मस्ती और जुनून की सीमा तोडक़र आगे ले जाता था, लेकिन गीतों के शब्द तो सीमा में ही रहते थे। मिथुन चक्रवर्ती ने जब कहा था कि ‘आई एम ए डिस्को डांसर’  तो यहां हिन्दी भाषा में सिर्फ अंग्रेेजी शब्द धुले भर थे। उन्होंने किसी तरह की सीमा नहीं तोड़ी थी, जो आधुनिक युवाओं की पहचान थी। परंतु वर्तमान में फिल्म ‘शक्ति’ के गीत ‘इश्क कमीना’ के बाद फिल्म ‘दम मारो दम’ के ‘ऊंचे ऊचा बंदा पोटी पे बैठे नंगा’ से लेकर अब सभी हदें पार करता हुआ फिल्म ‘देहली बेली’ का गीत ‘डीके बोस’ फिल्मों के गिरते स्तर की ओर इशारा करते हैं। ‘शक्ति’ फिल्म में तो दिग्गज शाहरूख और ऐश्वर्या जब गीतकार महबूब के गीत ‘इश्क कमीना’ पर झूमे तो उनके साथ देश भी झूमा। उसके बाद तो ‘कमीना’ गाली नहीं, बल्कि प्यार को संबोधित करने का एक मुहावरा हो गया। और यही फिल्मकारों की सफलता का पैमाना है। ‘दम मारो दम’ के लिए जब जयदीप साहनी को इस बात का ज्ञान हुआ कि ‘ऊंचे से ऊंचा बंदा पोटी पे बैठे नंगा’तो उन्होंने फौरन उसे गीत की शक्ल दे दी। और जिसे फिल्मकार ने हांथोहांथ खरीद लिया और फिर इस गीत ने धूम भी खूब मचाई यानी यह भी गीत सफल रहा। वहीं आमिर खान की पहली फिल्म ‘कयामत से कयामत तक’ के नायक को अपने पिता के अरमानों का अहसास था और इसलिए वह कहता था कि ‘पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा, बेटा हमारा ऐसा काम करेगा..., लेकिन अब उन्ही के निर्माण में बनी और उनके भांजे इमरान खान द्वारा फिल्म ‘देहली बेली’ के नायक को ऐसा लगता है कि उसका पिता उससे कहता है कि ‘तू गलती है मेरी, तुझपे जिंदगानी गिल्टी है मेरी’ इसलिए ऐ मेरे बेटे, डीके बोस तू यहां से भाग’। व्यापारी या दुकानदार अपने उत्पाद को बेचने के लिए बहुत कुछ बातें बना लेता है, उसे तरह-तरह से बेचने की कोशिश करता है। उसे पता होता है कि वह क्या बेच रहा है और उसे यह भी पता होता है कि जो उत्पाद वह बाजार में बेचने जा रहा है उसका विरोध होगा और जरूर होगा, और उसी विरोध की वहज से उसका उत्पाद बाजार में हाथोहांथ बिकेगा, क्योंकि उसे यह भी पता होता है कि उसके उत्पाद को खरीदने वाले लोग बाजार में मौजूद हैं। संगीत का स्तर गिरा है या बढ़ा है ये तो कहना बहुत मुसकिल होगा पर हां इतना तो पता चलता ही है कि समय के साथ-साथ संगीत भी बदलता है।
विश्व संगीत दिवस पर एक नजर.....
कहा जाता है कि संगीत इंशान की आत्मा होती है और संगीत शांती की प्रतीक भी होती है। विश्व में सदा ही शांति बरकरार रखने के लिए ही  फ्रांस में पहली बार 21 जून सन् 1982 में प्रथम विश्व संगीत दिवस मनाई गई इससे पूर्व अमेरिका के एक संगीतकार योएल कोहेन ने 1976 में इस दिवस को मनाने की बात की थी। विश्व संगीत दिवस कुल 17 देशों में ही मनाया जाता है (भारत, आस्टे्रलिया, बेल्जियम, ब्रिटेन, लक्समवर्ग, जर्मनी, स्विट्जरलैंड, कोस्टारीका, इजाराइल, चीन, लेबनाम, मलेसिया, मोरक्को, पाकिस्तान, फिलीङ्क्षपस, रोमानिया और कोलम्बिया)  विश्व संगीत दिवस के अलावा इसे सगीत समारोह के रूप में भी जाना जाता है। यह एक तरह से संगीत त्यौहार है जिसे सारे देश में अलग-अलग तरीकों से मनाया जाता है। भारत में इस अवसर पर कहीं संगीत प्रतियोगिता का आयोजन किया जाता है तो कहीं संगीत से भरा कार्यक्रम की प्रस्तुति की जाती है। विश्व संगीत दिवस का उद्देश्य लोगों को संगीत के प्रति जागरूक करना है ताकि लोगों का विश्वास संगीत से न उठे।

तुझे सलाम
1. पल-पल दिल के पास है -किशोर कुमार
किशोर कुमार अपने गाने दिल और दिमाग दोनों से ही गाते थे। वे हर तरह के गीत गा लेते थे क्योंकि उन्हें पता था कि कौन सा गाना किस अंदाज में गाना है। आज भी उनकी सुनहरी आवाज लाखों संगीत के दिवानों के दिल में बसी हुई है। और उनका जादू हमारे दिलों दिमाग पर छाया हुआ है। पल-पल दिल के पास जैसे अनेकों गाने को आज के पीढ़ी के युवा भी बहुत पंसद है । किशोर कुमार एक सदाबहार गायक ये जिन्हें भूल जाना नामुम्किन है।
2. गोल्डन दौर के हिरो गायक थे मुकेश
फिल्म सत्यम शिवम सुंदरम के कर्णप्रिय गीत चंचल शीतल निर्मल कोमल जैसे कई गीत है जिन्हें गायक मुकेश ने अपनी आवाज तो दी, लेकिन उन्हें पर्दे पर उतरता नहीं देख पाए और पहले ही इस संसार को अलविदा कह गए। केवल 56 वर्ष की उम्र में इस दुनिया से विदा हुए मुकेश अपनी आवाज से सजे कई गीतों को फिल्मी पर्दे पर उतरते हुए नहीं देख पाए थे। हिन्दी फिल्म जगत में गायक मुकेश को उनकी अलग तरह की आवाज के लिए हमेशा याद किया जाता है और उनके गीत आज भी लोगों को सुकून देते हैं। मुकेश के निधन के बाद भी कई साल तक उनके गीत फिल्मों में जादू बिखेरते रहे और ये गीत आज तक संगीत प्रेमियों को सुकून पहुंचा रहें हैं।
3. लता जी का कोई मुकाबला नहीं
बतौर गायिका लता जी का कोई मुकाबला नहीं है। अपने देश के अलावा विदेशों में भी लता के गानों की धूम छायी रही है। अपने देश में लता को जहां भारत रत्न से सम्मानित किया गया वहीं विदेशों में भी उनकी बढ़ती लोकप्रियता को देखकर फ्रांस सरकार ने उन्हें फ्रंास के सर्वोच्च नागरिक ‘ऑफिसर ऑफ द लीजन ऑफ आनर’ से सम्मानित किया। सम्मान अब लता के लिए पर्याय बन चुके हैं। उनके व्यक्तित्व व जीवन शैली एवं गायकी के प्रति उनके समर्पण को देखकर कहा जा सकता है कि लता के जैसा न कोई था और कोई है। लता जी आज 80 वर्ष की अवस्था पर पहुंच गयी हैं  उसके बाद भी किसी में हिम्मत नहीं जो उनका मुकाबला कर सके। अपनी गायकी और अपनी विचारों से भी वह वाकई भारत रत्न हैं।
4. जब कभी भी सुनोगे गीत रफी की
जब कभी भी सुनोगे गीत मेरे .... संग-संग तुम भी गुनगुनाओगे... रफी की हिट गानों में एक गाना यह भी था और सच ही कहा थ उन्होंने ‘तुम मुझे यूं भूना न पाओगे’। आज हम हमेशा उनकी गीत के जरिये उन्हें याद करते रहते हैं। जिस दौर में तकनीक नहीं थी ज्यादा आवाजें नहीं थी, गायक को अच्छी नजरों, से नहीं देखा जाता था, उस दौर में रफी ने गायन का दामन थामा था, लेकिन आज के दौर में जब सब कुछ है तब भी गाने वाले रफी की आवाज को छू भी नहीं पाते हैं।



Saturday, June 18, 2011

पत्रकार बनना इतना आसान नही.......... बहुत लंबी है प्रक्रिया ।


हम सोचते हैं कि अगर पत्रकारिता की पढ़ाई कर लें तो हमें पत्रकार बनने से कोई नही रोक सकता। भाई साहेब अगर ऐसा होता तो लोग पत्रकारिता की पढ़ाई बीच में ही छोड़ कर बैंक और रेलवे की तैयारी में नहीं जुट जातें। एक पत्रकार बनने के लिए जरुरी है कि आप मांसिक एंव शारीरिक दोनों रूपों से तैयार रहें। मैं अपने जीवन में इस क्षेत्र से जुड़े अब तक जितने भी लोगों से मिला हूँ चाहे वो कोई हमारा दोस्त हो या फिर कोई पत्रकारिता का छात्र लगभग वे सब लाचार होकर ही इस क्षेत्र में आऐं हैं क्योंकि इससे पहले उनमें से कुछ लोगों ने तो 2-3 सालों तक मेडिकल की तैयारी की तो किसी ने इंजिनियरिंग की, कुछ ने आई.एस की तो कुछ ने यू.पी.एस की। परंतु निराशा हाथ लगने के बाद उन्होंने पत्रकारिता की राह चुनी क्योंकि उन्हें ऐसा लगता था कि अब यही एक राह बची है जिसमें थोड़ी सी मेहनत करने के बाद उन्हें नौकरी आसानी से मिल जाऐगी। और वैसे भी सिनेमा जगत वालों ने इस क्षेत्र को इतना ज्यादा मसहूर किया है कि बच्चें बिना कुछ सोचे इसके चकाचौंध को बिना समझे इस क्षेत्र में आने के लिए उत्साहित रहते हैं। परंतु गलती इसमें उनकी नही होती, गलती तो सिनेमा जैसे माध्यमों की है जो मिडिया के एक ही रूप को लोगों के बीच लाता है जो जगमगाती चकाचौंध से भरी होती है क्योंकि ये मिडीया की बाहर की दुनिया होती है और दूसरे रूप की चर्चा करने में हिचकिचाता है क्योंकि मिडीया का दूसरा रूप बहुत ही भयानक है क्योंकि ये मिडीया हाउस के अंदर होने वाले प्रकियाओं को दर्शाता है। यहां एक पत्रकार के उपर संपादक का और संपादक के उपर मिडीया हाउस के संचालक का काम के प्रति दवाब इतनी ज्यादा होती है कि कभी-कभी वो अपनी जिंदगी से हतास हो जाता है। जितना राजनीति और शोषण इस क्षेत्र में होता है मेरे ख्याल से शायद ही ये किसी ओर क्षेत्र में होता होगा। इस क्षेत्र में नौकरी लेने जाओ तो संपादक का सबसे पहला सवाल ही यही होता है कि महिने में कितना लोगो । भाईसाहेब, यहां अपनी बोली खुद ही लगानी पड़ती है। यहां न तो नौकरी आसानी से मिलती है और न ही सुकून। परंतु, अगर आपका उद्देश्य बचपन से ही पत्रकार बनने का रहा हो, तब तो आपको इस क्षेत्र में आगे बढ़ने से कोई भी नही रोक सकता। मिडीया की चकाचौंध से आप अपने आपको बचाएं और यह तय कर के ही इस क्षेत्र में अपना कदम रखे की आपको पत्रकार बनना है तो बनना है चाहे इस राह में किसी भी तरह की परेशानियों का सामना क्यों न करना पड़े आप पीछे नही हटेंगे। 

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